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अफवाहें
आनन्दमयी मां मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि कुछ लोग यह सोचते हैं कि आप उन्हीं साधकों को बुलाती हैं जो दूर से आपकी ' कृपा ' को ग्रहण नहीं कर सकते; यह आपसे बार-बार मिलनेवालों की कमजोरी का चिह्न है !
लोग क्या मानते या कहते हैं उसके बारे में परेशान न होओ; ये प्रायः सदा ही अज्ञान- भरी मूर्खताएं होती हैं ।
मुझे हमेशा लोगों के यह सोचने पर आश्चर्य होता है कि वे मेरे कामों के कारण जान सकते हैं ! मैं हर मामले में व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुसार, भित्र-भित्र रूप से कार्य करती हूं । . *
मैं तुम्हें सलाह दूंगी कि तुम कभी साधकों की-विशेष रूप से पहुंचे हुए साधकों की-बातों पर कान न दो ।
२१ दिसम्बर १९३१
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निश्चय ही यह बात बिलकुल सच नहीं है कि मैं साधकों और उनकी साधना की परवाह नहीं करती । दुनिया की अवस्थाओं का बुरा होना मेरे परवाह करने को क्यों रोकेगा ! बल्कि यह तो गतिरोध में से बाहर आने के लिए एकमात्र उपाय के रूप में आध्यात्मिक उपलब्धि पर चोर देने का कारण होगा कि उसे शीघ्र संपन्न किया जाये । तुम लोगों से जो सुनते हो उस पर विश्वास न करो; गन्दी और विघ्नकारी चीजें हमेशा कही जाती
१०० रही हैं जो बिलकुल असत्य हैं ।
८ अक्तूबर, १९४०
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मेरे प्यारे बालक
तुम्हारे सभी पत्रों का उत्तर दे दिया गया है, लेकिन तुम्हारे हृदय की नीरवता में; तुम्हें उनका उत्तर दूसरों के मुंह से नहीं, वहां पर सुनना सीखना चाहिये । तुम्हें हमेशा पूरी सहायता दी जाती है, लेकिन तुम्हें उन्हें बाहरी साधनों से नहीं, हृदय की नीरवता में ग्रहण करना सीखना चाहिये । भगवान् तुम्हारे साथ हृदय की नीरवता में ही बोलेंगे, तुम्हारा पथप्रदर्शन करेंगे और तुम्हें तुम्हारे लक्ष्य तक ले जायेंगे ।
लेकिन उसके लिए तुम्हारे अन्दर ' भागवत कृपा ' और ' प्रेम ' पर पूरी श्रद्धा होनी चाहिये ।
१८ जनवरी १९६२
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नन्हें बालक मेरे
जब तुम्हारा पहला पत्र आया, तो मैंने उस पर फ्रेंच में केवल एक शब्द लिखा और उसे अपनी मेज़ पर रख छोडा-क्योकि मैं दूसरे पत्र की आशा कर रही थी; मुझे पूरा विकास था कि मेरा मौन उत्तर तुम्हें मिल जायेगा ।
तुम्हें दिलासा देने के लिए मैं तुरंत और हमेशा के लिए यह कह सकती हूं कि लोग एकदूसरे के बारे में जो कुछ कहें उसकी ओर जस भी ध्यान न दो-बोलने वाला कोई क्यों न हो- और अपनी ओर से मैं तुमसे कहती हू कि जब कोई (वह कोई धी क्यों न हो) मेरे नाम से कुछ कहे तो उसे कभी गंभीरता से न लो, क्योंकि पूर्ण सद्भावना के बावजूद वह बात हमेशा विकृत होती है ।
अब मैं तुमसे यह भी कहती हूं कि विधालय के इस मामले में चिंता न करो । मैं उसके बारे में नहीं लिखूंगी, लेकिन मेरा इरादा है कि एक दिन तुम्हें बुलाकर समझाऊं कि सें सारी चीज को किस तरह देखती हूं । तब तुम देखना तुम्हें इस बारे में कैसा लगता है ।
१०१ इस बीच मन को शान्त रहने दो ताकि 'प्रकाश' प्रवेश कर सके । मेरे समस्त प्रेम और आशीर्वाद के साथ ।
२७ अक्तूबर, १९६३
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तुम यहां उड़ती अफ़वाहों पर कान न देना कब सीखोगे?
१५ जुताई, १९६७
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हां, ये सब झूठी और मूर्खता- भरी अफवाहें आश्रम में घूम-फिरकर मेरे पास आयी हैं । लेने उन्हें कोई महत्त्व नहीं दिया क्योंकि ऐसा लगता है कि यहां अधिकतर लोग केवल गप्पें और मिथ्यात्व के लिए ही रहते हैं, और मैंने काली या दुर्गा का रूप धरने से बचने के लिए, अपनी चेतना ऐसी चीजों की ओर से हमेशा के लिए बन्द कर ली है ।
मैं आशा करती हूं कि जो लोग वफादार हैं और जिनमें जरा-सी भी बुद्धि है वे यह सब सुनने में अपना समय नष्ट नहीं करेंगे ।
भोजन के मामले में तुम जो कुछ कहते हो वह मुझे मालूम था- लेकिन तुम इतना तो जानोगे कि अपने काम को ज्यादा अच्छा बनाने के लिए, उसे अधिक प्रकाशमान और अधिक व्यापक बनाने के लिए हमेशा गुंजाइश रहती है ।
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तुम्हें दूसरों की भूलो और दुर्बलताओं के बारे में चिन्ता नहीं करनी चाहिये, केवल यही जरूरी है कि लोग जो कुछ कहते हैं उस पर विश्वास न करो, विशेष रूप से जब ने मेरा नाम लेकर कहें ।
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जब हम कटु होते हैं तो अपना भागवत संपर्क खो बैठते हैं और बहुत '' कटु रूप मै '' मानव बन जाते हैं ।
मेरे नाम से जो बातें तुम्हें कही जायें उनसे सावधान रहो-वे जिस
१०२ भाव से कही जाती हैं वह भाव खो जाता है ।
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इस बारे में बहुत सावधान रहो कि कोई प्रभाव मेरे ऊपर तुम्हारे विश्वास को कम न कर पाये । किसी चीज या किसी व्यक्ति को ऐसा न करने दो कि वह तुम्हें मुझसे अलग करे ।
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एक बहुत बड़ी गलतफहमी हुई है ।
ऐसा लगता है कि तुम यह मानते हो कि मैं एक बात कहती हूं और मेरा मतलब कुछ और होता है । यह अनर्गल बात हैं।
जब मैं बोलती हूं, तो स्पष्ट बोलती हूं और मैं जो कहती हूं मेरा मतलब हमेशा वही होता है ।
जब मैं कहती हूं : योग की पहली शर्त है शान्त और स्थिर रहना- तो मेरा यही मतलब होता है ।
जब मैं कहती हूं कि बातचीत बेकार है और वह केवल गड़बड़ की ओर ले जाती है, शक्ति के अपव्यय और जो कुछ थोड़ा-बहुत प्रकाश तुम्हारे पास है उसके भी क्षय की ओर ले जाती है-तो इसका यहीं अर्थ होता है, और कुछ नहीं ।
जब मैं कहती हूं कि मैंने किसी को अपनी ओर से बोलने और अपने मनमाने ढंग से मेरे शब्दों की व्याख्या करने का अधिकार नहीं दिया, तो मेरा यहीं मतलब होता हैं, और कुछ नहीं ।
मैं आशा करती हूं कि यह स्पष्ट और निर्णायक है और यह भ्रम- विशेष अब खतम हो जायेगा ।
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मैं उन लोगों को जो अधिकतर मिथ्या अफवाहें फैलाते फिरते हैं कि मैंने ऐसा कहा है या नहीं कहा, पहले ही चेतावनी दे चुकी हूं कि यह विश्वासघाती काम है ।
ऐसा लगता हैं कि यह विषैली आदत रुकने वाली नहीं है, इसलिए मैं
यह भी कहती हूं कि जो लोग निरन्तर यह करते रहेंगे वे गुह्य जगत् में विश्वासघात समझे जायेंगे ।
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